Thursday, January 30, 2014

Guest Post - जाड़े का मौसम....कुछ यादें...!


The first name that came to my mind when I decided to include guest posts was of Abhishek, who I guess is one of the first blogger friend of mine. He was the first Hindi blogger I met on blogspot. Even though I have never met him I can vouch for the fact that he is a great guy. His writing reflects his simplicity and humble nature. I requested him to write a post for me and he graciously accepted even though he is keeping pretty busy. All this time I was thinking about all the stuff I should write introducing Abhi, but he is so considerate that he has written the post in such a way that I need not tax my brain for anything. So without further ado presenting my first ever Hindi post by Abhishek....

यह ब्लॉग पढ़ने वाले लोग इस पोस्ट को देखकर थोड़ा तो चौकेंगे कि ये पोस्ट हिन्दी में कैसे? ये स्नेहा को क्या हो गया?वो कब से हिन्दी में लिखने लगी? तो सबसे पहले मैं बात साफ़ कर दूँ.. कि ये पोस्ट स्नेहा नहीं, मैं लिख रहा हूँ. मैं कौन? मैं यानी अभिषेक.

ये स्नेहा का कमाल है. उन्होंने एक दिन मुझसे रिक्वेस्ट की कि मैं इस ब्लॉग के लिए एक पोस्ट लिखूं. अब मैं ठहरा हिन्दी लिखने वाला, अंग्रेजी पढ़ने या समझने के लिए डिक्शनेरी का सहारा लेना पड़ता है. तो ऐसे में जो सबसे पहला सवाल मन में आया कि स्नेहा के ब्लॉग पर मुझे क्या अंग्रेजी में लिखना होगा? ये थोड़ी परेशानी की बात थी. अंग्रेजीमें तो लिखने के लिए मुझे किसी ट्रांसलेटर को नियुक्त करना पड़ेगा जो मेरी लिखी पोस्ट का अंग्रेजी में अनुवाद कर सके और जिसे फिर मैं स्नेहा को भेज सकूँ. लेकिन स्नेहा बहुत अच्छी दोस्त है. उसने इसका हल खुद ही बता दिया...ये कह कर कि आप हिन्दी में भी लिख सकते हैं.मेरे लिए ये बड़ी राहत की बात थी. मैं फिर भी निश्चित नहीं था कि मैं कुछ लिख पाऊँगा या नहीं.जनवरी का ये महीना बहुत ही उलझनों से भरा रहा है. लेकिन स्नेहा ने रिक्वेस्ट किया था, तो अपनी इस प्यारी दोस्त का रिक्वेस्ट यूँ इग्नोर कर देना मुझे अच्छा नहीं लगा...तो ये पोस्ट स्नेहा के लिए....!

रांदेवू (Rendezvous) के जो भी पाठक हैं उनमें से शायद कोई भी मुझे जानता नहीं होगा. अब मैं कोई प्रसिद्ध लेखक या ब्लॉगर तो हूँ नहीं.नाही कोई बड़ाव्यक्ति हूँ जो सब मुझे जाने...हाँ मेरे ही नाम के एक अभिनेता हैं, जो काफी मशहूर हैं लेकिन उनके और मेरे नाम का बस इतना ही सम्बन्ध है कि उनके नाम से ही इन्स्पाइर होकर मेरा नाम रखा गया था.ऐसा माँ बताती है किअमिताभ और जाया के बेटे अभिषेक के नाम के ऊपर ही मेरा नाम पड़ा था. मेरी माँ वैसे भी अमिताभ की बड़ी प्रशंसकरही है.
बरहहालकुछ अपने बारे में बताता हूँ मैं.

मैं हूँ अभिषेक. पटना से हूँ, और फ़िलहाल दिल्ली में रह रहा हूँ.हिन्दी में ब्लॉग लिखता हूँ. चारब्लॉग हैं मेरे...“मेरी बातें”, “एहसास प्यार का”, “कार की बात” और“कही-अनकही”. “मेरीबातें” परबहुत सी युहीं की बातें लिखी होती हैं, मेरेपुराने दिनों की कुछ यादें और ऐसी ही कुछ रैंडम सी बातें. “एहसास प्यार का” पर प्यार के कुछ किस्से मिलेंगे आपको. “कार की बात” पर कारों के बारे में जानकारी मिलेगी. “कही-अनकही” असल में मेरी बड़ी बहन जो एक लेखिका हैं, उनका ब्लॉग है, लेकिन उसे मैं अपना ब्लॉग ही मानता हूँ, इसलिए यहाँ उसका जिक्र किया मैंने.

यहाँ जब से स्नेहा ने मुझे लिखने के लिए कहा है, तब से मैं इस सोच में था कि यहाँ मैं लिखूं क्या?स्नेहा ने कुछ भी नहीं कहा था...उन्होंने बस इतना कहा था कि आपको जो मर्जी आपवो लिखें.ये थोड़ी उलझन की बात थी. जिनके पास ज्यादा ऑप्सन रहते हैं,वो ज्यादा कन्फ्यूज होते हैं. वही बात हुई मेरे साथ भी. बहुत से सामाजिक विषय या गंभीर विषय हैं, फिल्मों की बातें हैं....लेकिन उनमें उन विषय पर मेरे से अच्छा लिखने वाले काफी लोग मौजूद हैं. खुद स्नेहा भी मेरे से कहीं बेहतर लिखती हैं. तो वैसा कोई विषय लेने से अच्छा मैंने सोचा कि अपनी ही कुछ यादें कुछ बातें यहाँ शेयर करूँ मैं, आप सब के साथ.

हर इन्सान की यादें होती हैं, शायद सबसे खूबसूरत यादें बचपन की ही होती हैं.शायद इसलिये मुकेश साहब का वो गाना है“आया है मुझे फिर याद वो जालिम, गुज़ारा ज़माना बचपन का / अकेलेअकेले छोड़ के जाना और न आना बचपन का” या फिर जगजीत साहब का वो गाना “ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो / मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,वो कागज़ की कश्तीवो बारिश का पानी”. अपने पुराने अच्छे दिनों को याद करना कौन नहीं चाहता. सुकून मिलता है पुरानी यादों के गलियारों में टहलने में.मेरे साथ एक समस्या ये है कि मैं थोड़ा ज्यादा नॉस्टैल्जिकइन्सान हूँ. कुछ भी ऐसा दिख जाता है जैसे किसी गाने की धुन, कोई पुरानी किताब,ग्रीटिंग्स कार्ड, पुराने कोई तोहफे, कोई तस्वीर,पुराने खत...कुछ भी ऐसा दिख जाता है तोमैं पुराने यादों की गलियारों में झट से पहुँच जाता हूँ.स्नेहा ने मुझसे कहा था कि उन्हें ये पोस्ट जनवरी के महीने में चाहिए. अब इसके पीछे की वजह मैं नहीं जानता...हो सकता है कि मेरी तरह उन्हें भी जाड़े के मौसम से प्यार है.लेकिन उनका जनवरी का जिक्र करने से से ही मुझे कुछ बातें एकाएक याद आ गयीं. जनवरी हमेशा से एक खास महीना रहा है मेरे लिए...कुछ अच्छी बातें हुईं हैं तो कुछ ऐसी बातें भी हुई हैं इस महीने में जिसने ज़िन्दगी पर एक बड़ा असर डाला है. लेकिन आज अच्छी बातों को याद करने का वक्त और मौका है..तो मैं सोचा की इस जाड़े के मौसम से ही जुड़ी कुछ बातें आप सब के साथ मैं शेयर करूँ.

हरइन्सान के अपने पसंदीदा मौसम होते हैं.किसी को गर्मियों के दिन पसंद होते हैं तो कोई बारिश के मौसम को अच्छा कहता है तो कोई जाड़े के मौसम को,तो किसी को सबसे खूबसूरत मौसम वसंत का लगता है. लगभग हर किसी के पसंदीदा मौसम होते ही हैं. मुझे यूँ तो सभी मौसम अच्छे लगते हैं, लेकिनजाड़ेके मौसम से मुझे थोड़ा ज्यादा प्यार सा है.जाड़े के जिक्र के साथ ही हमेशा कुछ तस्वीरें दिमाग में खिंच आती हैं... छठ पूजा में गाँव जाना, मेरी नानी का घर, मेरा पुराना क्वॉर्टर, कुछ दोस्त, अपने शहर पटना के सड़कों पर की गयी कुछ आवारागर्दीऔर मस्ती.कुछ और भी चीज़ें याद आती हैं जाड़ों के जिक्र के साथ....कुछ किताबें, कुछ फ़िल्में, कुछ गाने, लिट्टी-चोखा, अलाव, बोरसी, क्रिकेट,बैड्मिन्टन,धूप, आँगन, माँ का स्वेटर बुनना, कोहरा और सुबह केकोहरे में सड़क के किनारे चाय कीगुमटियों में खड़े होकर चाय पीना.

मेरे लिए हमेशा जाड़े की शुरुआत होती थी दीवाली से. वैसेतोदीवाली के आसपास का ही समय होता है मौसम के बदलने का. सर्दियों की आहट इसी समय मिलती है.दीवाली के बाद हम छठ पूजा के लिए अपने गाँव जाते थे. साल में बस एक बार ही जाते थे गाँव.अक्टूबर-नवम्बर का महीनाहोता था वो.हमसुबह-सुबह ही गाँव के लिए निकलते थे.सुबह के करीबपाँच बजे का वक़्त होता था. सुबह के उस वक़्त की हवा थोड़ी सर्द होती थी, और एक अजीब सी खुशबु महसूस हुआ करती थी हवाओं में. उस खुशबु को मैं शब्दों में समझा नहीं सकता.ट्रेन या बस पर बैठे हुए सुबह के हलके कोहरे हलके ठण्ड में सफ़र करने का वो एक अलग ही आनंद होता था.उस वक़्त लगता था की सही में अभी सर्दियों की शुरुआत हो गयी है. उन दिनों जाने क्यों मुझेहमेशा यहीलगता था कि जैसे मेरे लिए वही वक़्त होता था जाड़े की शुरुआत का. जब से मैंने होश सँभाला है तब से हर छठ पूजा में हम गाँव जाया करते थेलेकिन साल 1999ऐसापहला मौका था जब हम पटना में ही रहे.उससाल मैंने माँ से ये बात कही थी कि “इसबार पता भी नहीं चला कैसे सर्दियों की शुरुआत हो गयी.”जैसेमानों सुबह के सर्द मौसम में गाँव जाना ही सर्दियाँ के शुरू होने का कोई संकेत हो. लेकिन सच कहूँ तो उस साल के बाद अब तक मुझे कभी पता नहीं चलता कि जाड़े की शुरुआत कब हुई. पहले मुझे लगता था कि मैं एक तारीख पर उँगलीरख कर येकह सकता था कि देखो, इसी दिन से इस साल सर्दियों की शुरुआत हुई थी. अबवो एहसास नहीं होता.

1995 तक मैं नानी घर में रहा हूँ. पूरे परिवार के साथ...एकजॉइंटफैमिली की तरह. मेरे बचपन की लगभग सभी यादें नानी घर से जुड़ी हैं.जाड़े के दिनों में, अपने बचपन के दिनों में हम सबसे ज्यादा मस्तीविंटर-वेकेशनमें करते थे.शायद गर्मी के छुट्टियों से कहीं ज्यादा हमें मज़ा आता था विंटर-वेकेशन में. कितने खेल होते थे खेलने को, दिन भर जाड़े की गुनगुनी धूप में हम कितने ही खेल खेल लिया करते थे. नानी घर में एक छोटा सा बग़ीचा था जहाँ अमरूद का एक पेड़ था. दिन में कितनी बार उस पेड़ पर चढ़ कर हम बदमाशियां किया करते थे...पेड़ की टहनियों पर झूलते थे हम, ये भी चैलेन्जलगातेकि कौन सबसे पहले पेड़ पर चढ़ता है.नानी का घर गली के आखिर में था.वो छोटी सी सड़क का आखिरी मकान नानी का घर था, तो ऐसे में बाहर गेट के पास बैठने में भी कोई दिक्कत नहीं थी. जाड़े के दिनों में बाहरमेनगेट के पास कुर्सियां लग जाया करती थीं और नानी-माँ-मौसियाँ-आसपास की चाची, मौसी और मामियाँ सबइक्कठे होकर बैठती थी. उनकी हर तरह की बातें हुआ करती थी, जो हम बच्चों को कभी ख़ास आकर्षित नहीं करती थीं...लगभग सभी मौसियाँ और चाचियाँ स्वेटर बुनने में लगी रहतीं. स्वेटर की डिजाईन की अदला बदली से लेकर खाने की नयीरेसिपीसे लेकर घर परिवार मोहल्ले. हर तरह की चर्चाएँ होती थीं.एकबड़ी सी चटाई गेट के पासबिछ जाती थी और हम सब बच्चों का वही अड्डा हो जाया करता था. पढ़ाई लिखाई से लेकर खाना-पीना भी सब वहीँगेट के पास बिछी चटाई पर होती थी. दोपहर के खाने के बाद अकसर हम क्रिकेट खेलने के लिए निकलते थे और फिर सीधे शाम में ही घर आते थे. तब तक चटाई और कुर्सियां घर के अन्दर पहुँच गयी होती थी. मुझे जाने क्यों उस वक़्त हर शाम जब मैं खेल कर वापस घर आता और मेनगेट के पास से सभी कुर्सियां, चटाईटेबुलको गायबदेखता तोबड़ा ही अजीब लगता. वहाँ जाने क्यूँएकसूनापनसा लगता. घर का वो कोना जो दिन भर इतने शोर शराबे और सब की बातें, चहल पहल से गूंजा हुआ सा रहता था वो बिलकुल ही सुना दिखतामुझे और मैं तेज़ क़दमों से चल कर घर के अन्दर आ जाता. हालांकि इसमें अजीब कुछ भी नहीं था, लेकिन फिर भी मुझे हमेशा बड़ा अजीब सा लगता था.

1995 मेंनानी के घर से जब हम नएक्वॉर्टर में आ गए तो भी नानी के घर जाना लगा ही रहा. ज्यादा दूरी भी नहीं थी दोनों घरों में, मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर की दूरी थी. मेरा तो जब भी मन करता, अपनी साइकिल उठता और निकल पड़ता नानी घर. शुरू में तो सारा वक़्त हमारा वहीं बीतता था. जाड़े की छुट्टियाँ तो ख़ासकर के नानी घर में ही बीतती रही हमेशा. जब तक हमने दसवीं पास न कर ली और थोड़ा पढाई का बोझ बढ़ न गया तब तक. कितनी सारी आदतें(जिन्हें मैं अच्छी आदतें कहूँगा) जो आज हैं मेरी,वो सब जाड़े के मौसम की ही देन है. गाने सुनना, फ़िल्में देखना और यहाँ तक कि किताबें पढ़ना भी मैंने इसी मौसम में शुरू किया.गाना सुनना तो मैं कह सकता हूँ की इसी मौसम में मैंने शुरू किया था. पहले मुझे आदत नहीं थी गाना सुनने की. कभीरेडिओ पर कुछ गाने सुन लिया करता था लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं.हमारे पास एक टेपरिकॉर्डरभीथा लेकिन वो हमेशा ख़राब पड़ा रहता था और हमने कभी उसे बनाने की कोशिश भी नहीं की. फिर1998की बात थी...मामाविडियोकोन कास्टीरियो खरीद लाये थे. और उसी साल जाड़े की छुट्टियों में हम बीस पच्चीस दिन नानी घर रहे थे. घर में स्टीरियो तो था, लेकिनकैसेट कम थे. जो कुछ कैसेट पुराने थे उन्हें खूब सुना मैं. गुलज़ारसाहब से भी मेरी पहली मुलाकात उन्हीं दिनों हुई थी, जब मामा के खरीदे हुए कैसेट में से एक कैसेट थी “फुर्सतके रात दिन-गुलज़ार”. याद भी नहीं की कितनी बार येकैसेट सुना हूँगा मैं.हाँ, इतना जरूर याद है कि कुछमहीनों बाद वोकैसेट पूरी तरह से घिस चुकी थी. नयास्टीरियो तो घर में था, औरऐसे ही कुछ पुराने गीतों के कैसेट भी...लेकिन नए फिल्मों के कैसेट एक भी नहीं थे घर में....और उन दिनों एक से एकगानें वाली फ़िल्में रिलीज हुई थीं....पड़ोस के मकान में गुड्डू भैया रहते थे...और उनके पास कैसेट का खजाना था. बस फिर क्या था, हम हर शाम उनके घर पहुँच जाते और नएनए फिल्मों के कैसेट लेकर सुनते. कुछकुछ होता है,सोल्जर, चाइनागेटआदि फ़िल्में थीं जिनके गाने उस साल हमने खूब सुने थे.शाम का वो वक़्त हमारा सबसे पसंदीदा वक़्त होता था....हमस्टीरियो पर गाने चला देते थे और रज़ाई में बैठकर खूब तरह तरह के खेल खेलते...कभी राजा-मंत्री-चोर-सिपाही तो कभी लूडो तो कभी कैरम.वोछुट्टियों के वक़्त होते थे इसलिएपढ़ाई का कुछ भी लेना देना नहीं था. कभी हम जिद करते तो भाड़े पर वी-सी-आर भी आ जाताऔर रात भर हम फ़िल्में देखते रहते.वोएकसुख थाजब एक कमरे में परिवार के सभी लोग बैठे हों,वीसीआर पर फ़िल्में चल रही हों, लिट्टी-चोखाखा रहे हों और सभी बोरसी के आसपास बैठ कर अपने हाथ पाँव सेंक रहे हों. ये एक ऐसा सुख था जिसके लिए आज भी कितना तरसता हूँ मैं. कितना अच्छा लगता था यूँ परिवार के साथ बैठकर वक़्त बिताना.

दिसंबर के आखिरी दिनों में जो एक सबसे महत्वपूर्ण काम होता था, लगभग सभी बच्चों के लिए वो था ग्रीटिंग्सकार्ड खरीदना और जितने भी परिवार-मित्र हैं सभी को वोग्रीटिंग्स कार्ड भेजना.हमग्रीटिंग्स खरीदते तो थे ही, साथ में ग्रीटिंग्स बनाते भी थे और कई जगह दो ग्रीटिंग्स पोस्ट करते थे...एक हाथ से बना हुआ और दूसरा ख़रीदा हुआ. कार्ड कहाँभेजना है हम पहले ही इसकी एक लिस्ट तैयार कर लेते थे, और फिर निकलते थे कार्ड खरीदने. ये काम भी हम नानी घर से ही करते थे. और दिसंबर के उस सप्ताह हम खूब व्यस्त रहते थे.टेबल-बिस्तर पर सिर्फ चार्ट पेपर्स,क्रेआन, स्केच पेन औरवाटरकलरपड़े रहते, हम खूब व्यस्त रहते थे ग्रीटिंग्सकार्ड बनाने में और जो खरीदे गए हैं कार्ड उन्हें सजाने में. क्योंकिसिर्फ कार्ड खरीदने तक ही बात सिमित नहीं रहती, कार्ड के अंदर क्या लिखना है, कुछ कोटेसन, कुछ विशेज या कोई मेसेज...ये भी सोचना होता था...और इन मेसेज्स को किस तरीके से लिखना है ये भी. ये सब बहुत सोचने का और मेहनत का काम होता था. एक अजब तरह का उत्साह होता था कार्ड भेजने में.जितना उत्साह कार्ड भेजने में रहता था उससे दुगुना उत्साह कार्ड पाने में रहता था.कोई पोस्टमैन घर के आसपास चक्कर लगता तो कार्ड की उम्मीद बंध जाती. और अगर कहीं से कोई बहुत अच्छा कार्ड आता तो शाम को माँ-पापा को वो कार्ड दिखाने की उत्सुकता रहती. शायद जाड़े का हमारा सबसे पसंदीदा काम यही होता था.ग्रीटिंग्स कार्ड खरीदना, बनाना और भेजना.

जब पढाई आगे बढ़ने लगी...ख़ास कर के दसवीं के बाद, तब से जाड़े की छुट्टीयोंमें नानी घर जाकर रहना थोड़ा कम हो गया. लेकिन अपने क्वॉर्टर में भी कुछकुछ वैसा ही माहौल हम बनाये रखते थे. बरामदेमें सुबह से ही धूप आती थी और क्वॉर्टर में एक बड़ा सा मैदान था औरवहीँ छोटा सा एक बग़ीचा भी.हमवहीं डेरा जमा कर बैठ जाया करते थे. हर कुछ का इंतजाम कर के...टेपरिकॉर्डर, किताबें,लूडो, कैरम, यहाँ तक की बैडमिन्टनऔर एक बैट और बॉल भी. पढ़ाई करते हुए हम जब भी थक जाते तो खेलने अपने क्वॉर्टर केमैदान में निकल जाते. मैं दसवीं में था, और उस समय ग्रुप स्टडी के लिए मेरा दोस्त प्रभात अकसर मेरे घर आ जाया करता था. और हम अपने पढ़ाई से एक डेढ़ घंटे का ब्रेक निकाल कर क्रिकेट या बैडमिन्टन खेल लिया करते थे. दसवीं के बाद लेकिनअकसर सर्दियों की छुट्टियाँ दोस्तों के साथ बीतने लगीं...प्रभात, सुदीपदिव्याऔर शिखाजैसे दोस्त साथ रहने लगे...हम सुबह सुबह ही कोचिंग के बहाने घर से निकलते और खूब देर तक धुंध भरी सड़कों पर घूमते फिरते...दोस्तों के साथ भी जाड़े के मौसम के कितने ही किस्से हैं. एक लम्बी सी कहानी है ये भी, जिसमें से कई किस्से मैं अपने ब्लॉग पर शेयर करते आया भी हूँ. एक तो बचपन और नानी घर में बीता वक़्त वजह है जाड़े के मौसम में मुझे नौस्तैल्जिक कर देने का वहीँ इन दोस्तों के साथ बीता वक़्त भी एक बड़ी वजह है. कितने ही खूबसूरत यादें हैं..

अब भी मुझे सर्दियों के मौसम से बहुत प्यार है. लेकिन इधर के सालों में शायद ही ऐसी कोई बात हुई हो जाड़े के मौसम में जिसे मैं याद कर के लिख सकूँ, या जिसका जिक्र कर सकूँ. जाड़े की सभी खूबसूरत यादें बस पटना के दिनों तक ही सीमित रही हैं. यादें इतनी सारी हैं कि एक पोस्ट में उन्हें समेटना तो संभव ही नहीं....ये तो मात्र एक ट्रेलर जैसा था, औरखुद को बहुत रोक टोक कर लिख रहा हूँ तो भी देखिये कितनी लम्बी पोस्ट बन गयी है और ये भी नहीं पता मुझे कि मेरी इन बातों से स्नेहा के साथ आप सब भी कहीं उब तो नहीं रहे हैं..खैर, मैं तो इस पोस्ट को लिखते वक़्त फिर से अपने उन पुराने दिनों में पहुँचचूका हूँ, जहाँ सुख था, सुकून था और फुर्सत के लम्हे थे. काश कोई टाईममशीन ऐसा मिल जाता जिससे मैं एक बटन दबाते ही फिर से उसी वक़्त में पहुँच जाता.

स्नेहा ने मुझे यहाँ लिखने का मौका दिया और देखिये मैंने मौके का फायदा उठा कर कितनी लम्बी बातें आप सब के साथ कर ली...स्नेहा,आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो आपने अपने इस खूबसूरतब्लॉगरांदेवू(Rendezvous)परमुझे जगह दिया. मेरे लिए ये एक बड़ी बात है.
- अभिषेक

15 comments:

  1. Dear Abhishek,

    Firstly thanks a lot for writing this amazing post. Aaj subah jab se aapka yeh post padha hai, humara ek bahut favorite gaana bahut yaad a rha hai, shayad aapne suna ho. " Dil Dhoondta Hai Phir Wohi Fursat Ke Raat Din". Reading your post felt like listening to this song. Breezy, nostalgic, happiness mingled with a feeling of sadness.

    Waise hume sardiyon se zada garmiyon ki chuttiyan pasand thi, nani ke ghar bhi garmiyon main he jaate thae. Par haan sardiyon ki dhoop main hume padhai karne aur homework karne main khoob mazza aata tha. Aur raja, wazer, chor, sipahi toh hum aaj bhi khelne ke liye ekdum ready hai :-)

    Sach main bahut special aur amazing thae vo din aur aapne iss post ke zariye hume bhi bachpan ki yaadon main pahuncha diya.

    Thanks again for this amazing write-up and being a great friend
    Cheers
    Sepo

    ReplyDelete
  2. अभिषेक के ही माध्यम से आपका ब्लॉग मुझे मिला था पढ़ने को। अभिषेक को पिछले कुछ वर्ष तो सर्दी समझ भी ना आयी होगी, बंगलोर का मौसम है ही ऐसा। दिल्ली की कँपकपी में स्वाभाविक लेखन होने लगता है, विशेषकर सर्दी के बारे में। सुन्दर आलेख।

    ReplyDelete
    Replies
    1. Abhishek keh rhe thae ki unhe yahan koi nhi jaanta par dekhye, humare shubh chintak unke he zariye mile hai :)

      Delete
  3. Sneha,

    Thank you so much. I dont kitne dino se aapka blog nahi padha hai maine, aaj bade dino baad aaya hun yahan....apne hi likhi post ko dekhne...to aapka blog padh raha hun, Infact subah se hi...saari pending posts.

    Sahi kaha aapne snehaa...Those days were awesome. Likhte waqt main bhi un dino mein pahunch gaya tha...! aapke jariye fir se ek baar humne bhi time travel ki hai..!

    Thanks once again for giving me space in your beautiful blog.
    Keep Writing. :)

    ReplyDelete
  4. स्नेहा जी...आपके ब्लॉग का लिंक अभि से ही मिला...| बहुत अच्छा लगा यहाँ आकर...बुकमार्क भी कर चुके हैं इसे...धीरे-धीरे कर के बाकी की पोस्ट पढूंगी...|
    आपने बहुत सही लिखा है...बहुत नम्र और सरल लड़का है ये अभि...| इससे मिल कर आपको आश्चर्य होगा कि उपरवाले की फैक्ट्री में अब भी ऐसे क्यूट और स्वीट नमूने बनाये जाते हैं...:P
    और अभि...मेरा नाम भी लिखने में तुम्हारे हाथों में ज्यादा दर्द हुआ क्या...??? बस्स...मेरी बड़ी बहन जो लेखिका भी है...लिख कर छुट्टी पा ली...??? :P
    वैसे तीसरी बार पढ़ कर भी उतना ही अच्छा लगा...जितना पहली बार पढ़ के आया...| हमको भी nostalgic कर देते हो तुम...|
    लव यू भाई...और loved your writings स्नेहा जी...ऐसे ही लिखते रहिए आप दोनों...:)
    P.S : अगर किसी को लगे कि अभि की अंग्रेज़ी सच में कमज़ोर है तो वो इसके ब्लॉग पर जाकर इसकी शुरुआती पोस्ट्स पढ़ सकते हैं जो खालिस अंग्रेज़ी में लिखी गई है...including a sweet poem...written in English...:)

    ReplyDelete
    Replies
    1. Thanks a lot priyanka ji, abhi ke blog se hum aapke lekhan par kai baar aye hai..
      Thanks a lot for ur kind words

      Delete
  5. good to see your blog sneha............
    and very good to see abhi here.....
    बहुत प्यारा इंसान है और गुलज़ार को प्यार करता है मेरी तरह :-) इसलिए इसका लिखा मुझे और भी प्यारा लगता है !
    thanks for this lovely rendezvous !!

    anu

    ReplyDelete
  6. अरे अभिषेक, हमारा कोमन ब्लॉग गाने साने को कैसे भूल गया? :-)

    ReplyDelete
    Replies
    1. Haha, ache se khabar lijeyega abhishek ki :)

      Delete
  7. अभिषेक के माध्यम से इस ब्लॉग तक पहुँची हूँ...बहुत अच्छी पोस्ट दी है अभिषेक ने...सीधा सादा सच्चा छोटा भाई जैसा है अभिषेक...स्नेहा... आपको, अभि को और प्रियंका को शुभकामनाएँ !!

    ReplyDelete
  8. अभिषेक के माध्यम से हम भी पहुंचे :)

    ReplyDelete
  9. Great piece of writing Abhishek, taking the readers for a walk through your cherished memory lanes!! Winter is special in its own way, this post made me nostalgic, specially - watching movies on VCR with family and enjoying simple pleasures and fun with friends during the winter holidays!! :)

    Thanks to Abhishek for writing and Sneha for sharing, Cheers!! :)

    ReplyDelete